Wednesday 3 June 2020

★श्रीवल्लभाचार्य जी के बाद बृजवासी व वल्लभ-कुल पुष्टिमार्ग के अब पथप्रदर्शक ?★ ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆●◆◆ श्रीवल्लभाचार्य जी के पुष्टिमार्ग की ज्ञान मे से दो बिन्दु (१)प्रेम भक्ति (२)ब्रह्म व माया की वर्तमान स्थिति मे विवेचना :- ★वल्लभाचार्य जी का कथन (१) महापुभु श्रीवल्‍लभाचार्य जी भक्ति के क्षेत्र के साधन मार्ग को पुष्टिमार्ग कहते है :- 【वहाँ पुष्टि-मार्गीय मानसी-सेवा पद्धति वाला साधक ●अपने "शुद्ध प्रेम" के द्वारा श्रीकृष्‍ण भक्ति में लीन हो जाता है और ●उनके "अनुग्रह से" सहज में ही अपनी वांछित वस्‍तु प्राप्‍त कर लेता है।】 ◆◆विवेचना◆◆ व्यक्ति अपने शुद्व प्रेम से श्रीकृष्ण की भक्ति मे लीन हो जाता है जिससे श्रीकृष्ण के अनुग्रह से व्यक्ति अपनी मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर लेता है ! वल्लभाचार्य जी के कथन का मूल "शुद्व प्रेम श्रीकृष्ण से" का पालन बृजवासी उनके कहने से पूर्व सन् 1409 से 611 वर्षों से आज तक कर रहे है ! केवल बृजवासी ही है जो श्रीनाथजी की 611 वर्षों से (निस्वार्थ) शुद्व प्रेम कर रहे है, उसी प्रेम के कारण 263 वर्षों से जतीपुरा मे श्रीनाथजी की सेवा की, उसके बाद मुगलों के अत्याचार से बचने के लिए अपने प्राण तक दिये और रक्षार्थ जतीपुरा से मेवाड़ तक आये ! यहाँ भी 348 वर्षो वर्षों से श्रीनाथजी से "शुद्व प्रेम" कर रहे है उसी का परिणाम है कि बृजवासी केवल बिना धन/सम्पत्ति की अपेक्षा से आज तक सेवा कर रहे है ! श्रीवल्लभाचार्य जी व उनके वंशज भी श्रीनाथजी से "शुद्व प्रेम" के साथ सेवा कर रहे थे, किन्तु कुछ दशकों पूर्व वल्लभ-कुल मे श्रीजी से ज्यादा उनकी सम्पत्ति से प्रेम बढ़ जाने से उनके "शुद्व प्रेम" मे से "शुद्व" शब्द हटा दिया गया ! अब वल्लभ-कुल केवल प्रेम ही करते है जो श्रीकृष्ण के प्रति "अशुद्ध प्रेम" है ! इसका प्रत्यक्ष उदाहरण सन् 1959 मे नाथद्वारा मन्दिर मण्डल का गठन है ! यक्ष प्रश्न - श्रीवल्लभाचार्य जी के अनुसार श्रीकृष्ण से शुद्ध प्रेम करना है तो श्रीजी, बृजवासी, वल्लभ-कुल व वैष्णवों के बीच नाथद्वारा मन्दिर मण्डल क्यों आया ? ◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆>◆> ★वल्लभाचार्य जी का कथन (२) :- महापुभु श्रीवल्‍लभाचार्य जी द्वारा प्रतिपादित शुद्धाद्वैतवाद दर्शन के भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग कहते हैं :- 【शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार ●ब्रह्म माया से अलिप्त है, इसलिये शुद्ध है। माया से अलिप्त होने के कारण ही यह अद्वैत है। ●यह ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी।】 ◆◆विवेचना◆◆ ब्रह्म माया से अलिप्त है अर्थात् ब्रह्म माया से अलग है ! व्यक्ति को ब्रह्म से ही प्रेम करना चाहिए, क्योंकि वह ही शुद्व व सत्य है ! श्रीवल्लभाचार्य जी के कथन का बृजवासियों ने पूर्ण रुप से पालन किया इसलिए केवल श्रीनाथजी (ब्रह्म) से ही प्रेम व सेवा की व माया की ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया ! श्रीवल्लभाचार्य जी व उनके वंशजों ने भी केवल श्रीनाथजी (ब्रह्म) से ही प्रेम किया व माया को गौण समझा, किन्तु कुछ दशकों से वल्लभ-कुल ने उल्टा करना शुरू कर दिया ! वह ब्रह्म व माया को एक ही समझने लगे व माया से अधिक प्रेम करने लगे ! माया से इतना प्रेम बढा कि "ब्रह्म नगरी" को छोड़कर, "माया नगरी" मे ही रहने लगे ! बात यहाँ तक भी समाप्त नहीं हुई वह वैष्णवों का चयन भी माया के पैमाने पर करने लगे ! उन्होंने तो श्रीजी की सम्पत्तियों की सुरक्षा के योग्य बृजवासियों के स्थान पर मायापति वैष्णवों को समझा, इसलिए नाथद्वारा मन्दिर मण्डल बोर्ड मे एक भी बृजवासियों को रखना उचित नहीं समझा ! यक्ष प्रश्न - श्रीवल्लभाचार्य जी के अनुसार श्रीजी की सेवा व रक्षा निस्वार्थ रूप से केवल बृजवासी ही कर सकते है, तो नाथद्वारा मन्दिर मण्डल मे कोई बृजवासी बोर्ड सदस्य क्यों नहीं ? ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ CA. Dinesh Sanadhya - 04/06/2020 www.dineshapna.blogspot.com





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