Tuesday 15 October 2019

सनातन ब्रह्म कौन है 🚩♨♨ ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●● 🙏🏼🙏🏼श्री मद भागवत गीता 14 अध्याय ∆∆∆∆∆∆ ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ।।27।। ★अर्थ- क्योंकि ब्रह्म, अविनाशी अमृत, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ। ★व्याख्या- ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’- मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा, आश्रय हूँ- ऐसा कहने का तात्पर्य ब्रह्म से अपनी अभिन्नता बताने में है। ●जैसे जलती हुई अग्नि साकार है और काष्ठ आदि में रहने वाली अग्नि निराकार है- ये अग्नि के दो रूप हैं, पर तत्त्वतः अग्नि एक ही है। ●ऐसे ही भगवान साकार-रूप से हैं और ब्रह्म निराकार-रूप से है- ये दो रूप साधकों की उपासना की दृष्टि से हैं, पर तत्त्वतः भगवान और ब्रह्म एक ही हैं, दो नहीं। ●जैसे भोजन में एक सुगन्ध होती है और एक स्वाद होता है; नासिका की दृष्टि से सुगन्ध होती है और रसना की दृष्टि से स्वाद होता है, पर भोजन तो एक ही है। ●ऐसे ही ज्ञान की दृष्टि से ब्रह्म है और भक्ति की दृष्टि से भगवान हैं, पर तत्त्वतः भगवान और ब्रह्म एक ही हैं। ■भगवान कृष्ण अलग हैं और ब्रह्म अलग है- यह भेद नहीं है; किंतु भगवान कृष्ण ही ब्रह्म हैं और ब्रह्म ही भगवान कृष्ण है। गीता में भगवान ने अपने लिए ‘ब्रह्म’ शब्द का भी प्रयोग किया है- ‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ ¶[1]और अपने को ‘अव्यक्तमूर्ति’ भी कहा है- ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’। ¶[2]तात्पर्य है कि साकार और निराकार एक ही है, दो नहीं। ■‘अमृतस्याव्ययस्य च’- अविनाशी अमृत का अधिष्ठान मैं ही हूँ और मेरा ही अधिष्ठान अविनाशी अमृत है। तात्पर्य है कि अविनाशी अमृत और मैं- ये दो तत्त्व नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं। इसी अविनाशी अमृत की प्राप्ति को भगवान ने ‘अमृतमश्रुते’ ¶[3] पद से कहा है। ‘शाश्वतस्य च धर्मस्य’- सनातन धर्म का आधार मैं हूँ और मेरा आधार सनातन धर्म है। ●तात्पर्य है कि सनातन धर्म और मैं- ये दो नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं। सनातन धर्म मेरा ही स्वरूप है। ¶[4] गीता में अर्जुन ने भगवानको शाश्वत धर्म का गोप्ता (रक्षक) बताया है। ¶[5] भगवान भी अवतार लेकर सनातन धर्म की रक्षा किया करते हैं। ¶[6]‘सुखस्यैकान्तिकस्य च’- ऐकान्तिक सुख का आधार मैं हूँ और मेरा आधार एकान्तिक सुख है अर्थात मेरा ही स्वरूप एकान्तिक सुख है। भगवान ने इसी ऐकान्तिक सुख को ‘अक्षय सुख’[1], ‘आत्यन्तिक सुख’[2] और ‘अत्यंत सुख’[3] नाम से कहा है। ■इस श्लोक में ‘ब्रह्मणः’, ‘अमृतस्य’ आदि पदों में ‘राहोः शिरः’ की तरह अभिन्नता में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। तात्पर्य है कि ‘राहु का सिर’- ऐसा जो प्रयोग होता है, उसमें राहु अलग है और सिर अलग है- ऐसी बात नहीं है, प्रत्युत राहु का नाम ही सिर है और सिर का नाम ही राहु है। ऐसे ही यहाँ ब्रह्म, अविनाशी अमृत आदि ही भगवान कृष्ण हैं और भगवान कृष्ण ही ब्रह्म, अविनाशी अमृत आदि हैं। ■ब्रह्म कहो, चाहे कृष्ण कहो, और कृष्ण कहो, चाहे ब्रह्म कहो; अविनाशी अमृत कहो, चाहे कृष्ण कहो, और कृष्ण कहो चाहे अविनाशी अमृत कहो; शाश्वत धर्म कहो, चाहे कृष्ण कहो और कृष्ण कहो चाहे शाश्वत धर्म कहो; ऐकान्तिक सुख कहो चाहे कृष्ण कहो; और कृष्ण कहो चाहे ऐकान्तिक सुख कहो; एक ही बात है। इसमे की आधार-आधेय भाव नहीं है, एक ही तत्त्व है। ■इसलिए भगवान की उपासना करने से ब्रह्म की प्राप्ति होती है- यह बात ठीक ही है। 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹









No comments:

Post a Comment