Friday 17 August 2018

लोक धाम में मणिरत्नों से सुशोभित श्रीगोवर्द्धन है। वहाँ गिरिराज की कंदरा में श्री ठाकुरजी गोवर्द्धनाथजी, श्रीस्वामिनीजी और ब्रज भक्तों के साथ रसमयी लीला करते है। वह नित्य लीला है। वहाँ आचार्य जी महाप्रभु श्री वल्लभाधीश श्री ठाकुरजी की सदा सर्वदा सेवा करते है। एक बार श्री ठाकुरजी ने श्री वल्लभाचार्य महाप्रभु को देवी जीवों के उद्धार के लिए धरती पर प्रकट होने की आज्ञा दी। श्री ठाकुरजी श्रीस्वामिनीजी, ब्रज भक्तो के युथों और लीला-सामग्री के साथ स्वयं श्री ब्रज में प्रकट होने का आशवासन दिया।इस आशवासन के अनुरूप विक्रम संवत् १४६६ ई. स. १४०९ की श्रावण कृष्ण तीज रविवार के दिन सूर्योदय के समय श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य गिरिराज गोवर्धन पर हुआ। यह वही स्वरूप था जिस स्वरूप से इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए भगवान्, श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी थी।श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और बाद में सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। ShriHari (35)सर्वप्रथम श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) सं. १४६६ के दिन जब एक ब्रजवासी अपनी खोई हुई गाय को खोजने गोवर्धन पर्वत पर गया तब उसे श्री गोवर्द्धनाथजी की ऊपर उठी हुई वाम भुजा के दर्शन हुए उसने अन्य ब्रजवासियों को बुलाकर ऊर्ध्व वाम भुजा के दर्शन करवाये। तब एक वृद्ध ब्रजवासी ने कहा की भगवान् श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को बाये हाथ की अंगुली पर उठाकर इन्द्र के कोप से ब्रजवासियों, ब्रज की गौऐं और ब्रज की रक्षा की थी। तब ब्रजवासियों ने उनकी वाम भुजा का पूजन किया था। यह भगवान् श्रीकृष्ण की वही वाम भुजा है। वे प्रभु कंदरा में खड़ें है और अभी केवल वाम भुजा के दर्शन करवा रहे है। किसी को भी पर्वत खोदकर भगवान् के स्वरूप को निकालने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। जब उनकी इच्छा होगी तभी उनके स्वरूप के दर्शन होगे। इसके बाद लगभग ६९ वर्षो तक ब्रजवासी इस ऊर्ध्व भुजा को दूध से स्नान करवाते, पूजा करते, भोग धरते और मानता करते थे। प्रतिवर्ष नागपंचमी के दिन यहां मेला लगने लगा था। वि.स. १५३५ में वैशाख कृष्ण एकादशी को मध्यान्ह एक अलोकिक घटना घटी। गोवर्धन पर्वत के पास आन्योर गाँव के सद्दू पाण्डे की हजारों गायों में से एक गाय नंदरायजी के गौवंश की थी, जिसे धूमर कहा जाता था। वह नित्य तीसरे प्रहर उस स्थान पर पहुँच जाती थी, जहाँ श्री गोवर्धननाथजी की वाम भुजा का प्रकट्य हुआ था। वहाँ एक छेद था। उसमें वह अपने थनों से दूध की धार झराकर लौट आती थी। सदू पाण्डे को संदेह हुआ कि ग्वाला अपरान्ह में धूमर गाय का दूध दुह लेता है इसलिए यह गाय संध्या समय दूध नहीं देती है। एक दिन उसने गाय के पीछे जाकर स्थिति जाननी चाही, उसने देखा कि गाय गोवर्धन पर्वन पर एक स्थान पर जाकर खडी हो गयी और उसके थनों से दूध झरने लगा। सद्दू पाण्डे को आश्चर्य हुआ। उसके निकट जाकर देखा तो उसे श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द के दर्शन हुए इसी दिन वैशाख कृष्ण ११ को संवत् १५३५ छत्तीसगढ़ के चम्पारण्य में श्री वल्लाभाचार्य का प्राकट्य हुआ। श्री गोवर्धननाथजी ने स्वयं सद्दू पाण्डे से कहां कि-‘मेरा नाम देवदमन है तथा मेरे अन्य नाम इन्द्रदमन और नागदमन भी है। उस दिन से ब्रजवासी श्री गोवर्धननाथजी को देवदमन के नाम से जानने लगे। सदू पाण्डे की पत्नी भवानी व पुत्री नरों देवदमन को नित्य धूमर गाय का दूध आरोगाने के लिए जाती थी। ShriHari (8) वि.स. १५४९ (ई.स. १५९३) फाल्गुन शुक्ल एकादशी गुरूवार के दिन श्री गोवर्धननाथजी ने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी को झारखण्ड में आज्ञा दी-हमारा प्राकट्य गोवर्धन की कन्दरा में हुआ है। पहले वामभुजा का प्राकट्य हुआ था और फिर मुखारविन्द का। अब हमारी इच्छा पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य करने की है। आप शीघ्र ब्रज आवें और हमारी सेवा का प्रकार प्रकट करे। यह आज्ञा सुनकर महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य अपनी यात्रा की दिशा बदलकर ब्रज में गोवर्धन के पास आन्योर ग्राम पधारे वहाँ आप श्री सद्दू पाण्डे के घर के आगे चबूतरे पर विराजे। श्री आचार्यजी महाप्रभु के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर सद्दू पाण्डे सपरिवार आपश्री के सेवक बने। सद्दू पाण्डे ने आपश्री को श्रीनाथजी के प्राकट्य की सारी कथा सुनाई। श्री महाप्रभुजी ने प्रातः काल श्रीनाथजी के दर्शनार्थ गोवर्धन पर पधारने का निश्चय व्यक्त किया। दूसरे दिन प्रातः काल श्री महाप्रभुजी अपने सेवको और ब्रजवासियों के साथ श्री गिरिराजजी पर श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए चले। सर्वप्रथम आपने हरिदासवर्य गिरिराजजी को प्रभु का स्वरूप मानकर दण्डवत प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर गिरिराजजी पर धीरे-धीरे चढ़ना आरम्भ किया। जब दूर से ही सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के प्राकट्य का स्थल बतलाया तब महाप्रभुजी के नेत्रों से हर्ष के अश्रुओं की धारा बह चली। उन्हे ऐसा लग रहा था कि वर्षो से प्रभु के विरह का जो ताप था, वह अब दूर हो रहा है। उनकी पर्वत पर चढ ने की गति बढ गई। तभी वे देखते है कि सामने से मोर मुकुट पीताम्बरधारी प्रभु श्रीनाथजी आगे बढे आ रहे है। तब तो श्रीमद् वल्लभाचार्य प्रभु के निकट दौडते हुए से पहुँच गये। आज श्री वल्लभाचार्य को भू-मंडल पर अपने सर्वस्व मिल गये थे। श्री ठाकुरजी और श्री आचार्यजी दोनो ही परस्पर अलिंगन में बंध गये। इस अलौकिक झाँकी का दर्शन कर ब्रजवासी भी धन्य हो गये। आचार्य श्री महाप्रभु श्रीनाथजी के दर्शन और आलिंगन पाकर हर्ष-विभोर थे। तभी श्रीनाथजी ने आज्ञा दी-”श्री वल्लभ यहाँ हमारा मन्दिर सिद्ध करके उसमें हमें पधराओं और हमारी सेवा का प्रकार आरम्भ करवाओं”।श्री महाप्रभु जी ने हाथ जोड़कर विनती की ”प्रभु !आपकी आज्ञा शिरोधार्य है”। श्री महाप्रभु ने अविलम्ब एक छोटा-सा घास-फूस का मन्दिर सिद्ध करवाकर ठाकुरजी श्री गोवर्धननाथजी को उसमें पधराया तथा श्री ठाकुरजी को मोरचन्द्रिका युक्त मुकुट एवं गुंजामला का श्रृंगार किया। आप श्री ने रामदास चौहान को श्रीनाथजी की सेवा करने की आज्ञा दी। उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता मत कर स्वयं श्रीनाथजी तुम्हे सेवा प्रकार बता देंगे। बाद में श्री महाप्रभुजी की अनुमति से पूर्णमल्ल खत्री ने श्रीनाथजी का विशाल मन्दिर सिद्ध किया। तब सन् १५१९ विक्रम संवत् १५७६ में वैशाख शुक्ल तीज अक्षय तृतीया को श्रीनाथजी नये मन्दिर पधारे तथा पाटोत्सव हुआ। तब मधवेन्द्र पुरी तथा कुछ बंगाली ब्राह्मणों को श्रीनाथजी की सेवा का दायित्व सौपा गया। कुभंनदास संगीत सेवा करने लगे तथा कृष्णदास को अधिकारी बनाया गया। बाद में श्री गुसाँईजी ने बंगाली ब्राह्मणों को सेवा से हटाकर नई व्यवस्था की जो आज तक चल रही है। जब श्रीनाथजी ब्रज से श्रीनाथद्वारा में पधारे तब वि.स. १७२८ फाल्गुन कृष्ण सप्तमी २० फरवरी सन् १६७२ ई. शनिवार को श्रीनाथजी वर्तमान निज मन्दिर में पधारे और धूमधाम से पाटोत्सव हुआ तब सिहाड ग्राम का नाम ”श्रीनाथद्वारा” प्रसिद्ध हुआ। नाम करण-अभी तक श्रीनाथजी को ब्रजवासी देवदमन के नाम से जानते है। महाप्रभु वल्लभाचार्यजी ने आप श्री का प्रथम श्रृंगार करके जिस दिन सेवा प्रणाली व्यवस्थित की उस दिन आपका एक और नाम ‘गोपालजी’ रखा। इसी कारण गोवर्धन की तलहटी में स्थित वर्तमान जतीपुरा ग्राम को गोपालपुर कहा जाने लगा था। प्रभुचरण श्रीविट्ठलनाथजी ने जब बंगाली पुजारियों को हटाकर नई व्यवस्था की तब आपश्री ने प्रभु को श्री ‘गोवर्द्धननाथजी’ नाम दिया। माला-तिलक रक्षक श्री गोकुलनाथजी के समय भावुक भक्त आपश्री को ‘श्रीनाथजी’ के संक्षिप्त किन्तु भाव भरे नाम से पुकारने लगे। यह नाम श्री कोई नया नहीं था। गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड में श्री गोवर्धननाथ के देवदमन और श्रीनाथजी दोनो ही के नामों का उल्लेख है-” श्रीनाथं देवदमनं वदिष्यन्ति सज्जनाः” (७/३०/३१) इस प्रकार ‘श्रीनाथजी’ यह अभिधान भी बहुत प्राचीन है। ‘श्री’ शब्द लक्ष्मीवाचक और राधापरक है। राधाजी भगवान् की आह्लादिनी आनंददायिनी शक्ति है और ‘नाथ’ शब्द तो स्वामिवाचक है ही। भावुक भक्त बडे ही लाड़ से श्रीनाथजी को ‘श्रीजी’ या ‘श्रीजी बाबा’ भी कहते है। श्रीनाथजी निकुंज के द्वार पर स्थित भगवान् श्रीकृष्ण का साक्षात् स्वरूप है। आप अपना वाम (बायाँ) श्रीहस्त ऊपर उठाकर अपने भक्तों को अपने पास बुला रहे है। मानों आप श्री कह रहे है। – ”मेरे परम प्रिय! हजारों वर्षो से तुम मुझसे बिछुड़ गये हों। मुझे तुम्हारे बिना सुहाता नहीं है। आओ मेरे निकट आओं और लीला का रस लो। ”प्रभु वाम अंग पुष्टि रूप है। वाम श्रीहस्त उठाकर भक्तों को पुकारने का तात्पर्य है कि प्रभु अपने पुष्टि भक्तों की पात्रता, योग्यता-अयोग्यता का विचार नहीं करते और न उनसे भगवत्प्राप्ति के शास्त्रों में कहे गये साधनों की अपेक्षा ही करते है। वे तो निःसाधन जनो पर कृपा कर उन्हे टेर रहे है। श्रीहस्त ऊँचा उठाकर यह भी संकेत कर रहे है कि जिस लील-रस का पान करने के लिए वे भक्तों को आमंत्रित कर रहे है, वह सांसारिक विषयों के लौकिक आनन्द और ब्रह्मानन्द से ऊपर उठाकर भक्त को भजनानन्द में मग्न करना चाहते है।परम प्रभु श्रीनाथजी का स्वरूप दिव्य सौन्दर्य का भंडार और माधुर्य की निधि है। मधुराधिपती श्रीनाथजी का सब कुछ मधुर ही मधुर है। अपने सौन्दर्य एवं माधुर्य से भक्तों को वे ऐसा आकर्षित कर लेते हैं कि भक्त प्रपंच को भूलकर देह-गेह-संबंधीजन-जगत् सभी को भुलाकर प्रभु में ही रम जाता है, उन्ही में पूरी तरह निरूद्ध हो जाता है। यही तो हैं प्रभु का भक्तों के मन को अपनी मुट्ठी बाँधना। वास्तव में प्रभु अपने भक्तों के मन को मुट्ठी में केद नहीं करते वे तो प्रभु-प्रेम से भरे भक्त-मन रूपी बहुमूल्य रत्नों को अपनी मुट्ठी में सहेज कर रखते है। इसी कारण श्रीनाथजी दक्षिण (दाहिने) श्रीहस्त की मुट्ठी बाँधकर अपनी कटि पर रखकर निश्चिन्त खडे़ है। दाहिना श्रीहस्त प्रभु की अनुकूलता का द्योतक है। यह प्रभु की चातुरी श्रीनाथजी के स्वरूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। प्रभु श्रीनाथजी नृत्य की मुद्रा में खडे है। यह आत्मस्वरूप गोपियों के साथ प्रभु के आत्मरमण की, रासलीला की भावनीय मुद्रा है। रासरस ही परम रस है, परम फल है। प्रभु भक्तों को वही देना चाहते है। पुष्टिमार्ग के सर्वस्व प्रभु श्रीनाथजी के स्वरूप का वर्णन ‘अणुभाष्य -प्रकाश-रश्मि’ में किया गया हैं- ‘उक्षिप्तहस्तपुरूषो भक्तमाकारयत्युत’ दक्षिणेन करेणासौ मुष्ठीकृत्य मनांसिनः । वाम कर समुद्धृत्य निहनुते पश्य चातुरीम्‌॥ गो. श्री द्वारकेशजी ने इसी भाव का शब्दांकन एक पद में सुन्दर ढंग से किया हैः- देक्ष्यो री मै श्याम स्वरूप। वाम भुजा ऊँचे कर गिरिधर, दक्षिण कर कटि धरत अनूप। मुष्टिका बाँध अंगुष्ट दिखावत, सन्मुख दृष्टि सुहाई। चरण कमल युगल सम धरके, कुंज द्वार मन लाई। अतिरहस्य निकुंज की लीला, हृदय स्मरण कीजै। ‘द्वारकेश’ मन-वचन-अगोचर, चरण-कमल चित दीजै॥ श्रीनाथजी के मस्तक पर जूडा है, मानों श्री स्वामिनीजी ने प्रभु के केश सँवार कर जूडें के रूप में बाँध दिये है। कर्ण और नासिका में माता यशोदा के द्वारा कर्ण-छेदन-संस्कार के समय करवाये गये छेद हैं। आप श्रीकंठ में एक पतली सी माला ‘कंठसिरी’ धारण किए हुए है। कटि पर प्रभु ने ‘तनिया’ (छोटा वस्त्र) धारण कर रखा है। घुटने से नीचे तक लटकने वाली ‘तनमाला’ भी प्रभु ने धारण कर रखी है। आपके श्रीहस्त में कड़े है, जिन्हे मानों श्रीस्वामिनीजी ने प्रेमपूर्वक पहनाया है। निकुंजनायक श्री नाथजी का यह स्वरूप किशोरावस्था का है। प्रभु श्री कृष्ण मूलतः श्यामवर्ण है। श्रृंगार रस का वर्ण श्याम ही है। प्रभु श्रीनाथजी तो श्रृंगार रस, परम प्रेम रूप है। वही मानों उनके स्वरूप में उमडा पड़ रहा है। अतः आपश्री का श्यामवर्ण होना स्वभाविक है किन्तु श्रीनाथजी के स्वरूप में एक विशेषता यह है कि उनके स्वरूप में भक्तों के प्रति जो अनुराग उमड़ता है इसलिए उनकी श्यामता मे अनुराग की लालिमा भी झलकती है। इसी कारण श्रीनाथजी का स्वरूप लालिमायुक्त श्यामवर्ण का है। प्रभु की दृष्टि सम्मुख और किचिंत नीचे की ओर है क्योंकि वे शरणागत भक्तो पर स्नेहमयी कृपापूर्ण दृष्टि डाल रहे है। प्रभु श्रीनाथजी की यह अनुग्रहयुक्त दृष्टि ही तो पुष्टिभक्तों का सर्वस्व है। द्वापर युग में जरासंध और कालयवन ने जिस प्रकार मथुरा पर आक्रमण कर दिया था और उससे बचकर भगवान् श्रीकृष्ण कुछ समय के लिये अन्यत्र चले गये थे एवं शांति होने पर पुनः व्रज लौट आये वैसा का वैसा लीला चरित्र नाथद्वारा में श्रीकृष्ण स्वरूप प्रभु श्रीनाथजी के साथ बना। वि.स. १८३५ में अजमेर मेरवाड़ा के मेरो ने मेवाड पर भयानक आक्रमण किया तथा नृशंस हत्याएं करना प्रारंभ कर दिया। इधर पिंडारियों ने नाथद्वारा में घुसकर लूट खसोट की और धन-जन को हानि पहुँचाई। निरन्तर बढती हुई अशांति के बादल अभी छितरा भी नहीं पाये कि वि.स. १८५८ में दौलतराव सिन्धिया से पराजित होकर जसवन्तराव होल्कर यत्र तत्र भटकता हुआ मेवाड़ भूमि के समीप आ गया। परन्तु सिन्धिया की सेना उसे खोजती हुई नाथद्वारा आ पहुँची। अनवरत युद्धों की विभीषिका के मध्य भी नाथद्वारा का अनुपम वैभव देखकर उन्होने गोस्वामी जी से तीन लाख रूपया मांगा और व्यर्थ का श्रम देकर वसूलने का निरर्थक प्रयास किया। मंदिर की अचल संपति पर भी उसका मन मचल उठा और उसे भी हथियाने की चैष्ठाएँ की जाने लगी। आगत विकट स्थिति को भांपकर प्रभु श्रीनाथजी को सुरक्षित रखने के लिए गो.ति. श्री गिरिधरजी महाराज ने घसियार नामक वीहड़ में नाथद्वारा के समान ही मन्दिर बनवाना प्रारंभ कर दिया और नगर की संकटापन्न स्थिति के बारे में महाराज श्री ने वि.स. १८५७ आषाढ सुदी २ को मेवाड़ महाराणा श्री भीमसिंह को एक पत्र लिखा। प्रभु श्रीनाथजी एवं नगर का जन जीवन संकटग्रस्त देखकर गो.ति. श्री गिरिधर महाराज को मेवाड़ महाराणा ने श्री ठाकुर जी को उदयपुर पधारने की आज्ञा दे दी। भगवत् भक्त महाराणा ने त्वरित ही देलवाडा के राजा कल्याणसिंह झाला, कूंठवा के ठाकुर विजयसिंह जी चूंडावत सांगावत आगर्या के ठाकुर जगतसिंह जेत मालोत, मोई के जागीदार अजीतसिंह भाटी, शाह एकलिंगदास बोल्या तथा जमादार नाथूसिंह को सेना सहित नाथद्वारा की ओर रवाना किया। मेवाड़ की बहादुर सेना ने नाथद्वारा आकर घोर संग्राम किया तथा शत्रुओं को तितर-बितर कर दिया। गो.ति. श्री गिरिधरजी महाराज ने उदयपुर चले जाने में ही अपना हित समझा और वि.स. १८५८ माघ कश्ष्ण १ तद्‌नुसार दिनांक २९ जनवरी १९०२ को प्रभु श्रीनाथजी, श्री नवनीप्रियजी और विट्ठलनाथजी को रत्नालंकारों सहित लेकर महाराज श्री उदयपुर की ओर लेकर चल पडे़। कुछ ही समय में कोठारिया के रावत विजयसिंह चौहान उनके साथ हो लिये। इनका पहला पड़ाव उनवास नामक ग्राम में हुआ। वहां जब सुना की नाथद्वारा में होल्कर की सेना बडा उत्पात मचा रही है तब कोठारिया रावत नगर की रक्षार्थ नाथद्वारा लौट आये। यहां पर होल्कर की सेना ने उन्हे घेर लिया तथा शस्त्र एवं घोड़ा दे देने को विवश किया। कोठारिया रावत ने इसमें अपना अपमान समझा। उन्होने होल्कर की सेना से युद्ध ठान लिया और लड़ते- लड़ते वीरगति को प्राप्त किया। प्रभु श्रीनाथजी उदयपुर की सीमा में आगे बढ़ने लगे। मेवाड महाराणा ने घसियार में प्रभु श्रीनाथजी व अन्य स्वरूपों की अगवानी की लेकिन उस समय तक घसियार का मंदिर निर्माणाधीन था। अतः मेवाड़ महाराणा प्रभु को लेकर उदयपुर पधारे। उदयपुर में प्रभु का दिव्य स्वागत :- उस समय उदयपुर मेवाड़ की सुप्रसिद्ध राजधानी थी। भारत के वैभवशली नगरों में इसकी गणना होती थी। जिसके चारों ओर सुन्दर-सुन्दर जलाश्य थे। उनके किनारे हरे-भरे उपवन लहरा रहे थे। वृक्ष फल-फूलों से लदे हुए थे। उन पर विविध प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे। हिरण चौकडी भरते स्पष्ट दिखाई देते थे। दूसरी ओर नगर की सम्पन्नता भी वर्णनातीत थी। बडी-बडी अटारियां ,बाजार, अन्न के गोदाम, घी तेल के कुंड ,सभा भवन, बडे-बडे गोपुर तथा चार दिवारियों से यह नगर अत्यन्त ही शोभा पर था। अस्तबल घोडो से भरे हुए थे तथा गज शाला में अनेक मदमस्त हाथी सुशोभित हो रहे थे। जैसे ही प्रभु श्रीनाथजी के शुभागमन की चर्चा इस नगर में फैली वैसे ही राजप्रसादों के गगनचुम्बी शिखरों पर चमकते स्वर्ण कलशों को स्वच्छ कर दिया गया और उन पर विचित्र झांडियां फहरा दी गई। कितने ही दिनों पूर्व से ही नरनारियों ने प्रभु के आगमन की खुशी में घरबारों को लीपापोता तथा गृहद्वारों को आम्र तथा आशा पल्लवों से सजा दिया। नगर में बड़े-बड़े दरवाजे बनाये गये तथा रंग बिरंगी पताकाओं की सैकड़ो, वन्दनवारों से प्रधान मार्गो को सुशोभित कर दिया गया। नगर के राजपथ, गलियों और चौराहे झाड़ बुहारकर साफ कर दिये और उन पर निर्मल जल का छिड़काव कर दिया गया। प्रत्येक घर में उस दिन आनन्द का स्रोत फूट पड़ा। लोगो ने नई पौशके पहनी। जगह-जगह पर अगर धूप लगाकर नगर को महका दिया गया। अनेक नरनारी सजधज कर राजमार्ग में एकत्रित हो प्रभु श्रीनाथजी की बाट निहारने लगे। वर्तमान श्रीनाथजी मंदिर से लेकर राजमार्ग प्रमुख चौक और नगर से बाहर तक आपारन समूह लालायित था। सुहागिन नारियों ने किनारीदार कसुमल साड़ियों को पहिना, हाथो में कंकड तथा मंगलसूत्र से अपने आप को साजा लिया। पुरूष धोती, लम्बी अंगरखी पहिने हुये थे। उनके मस्तक पर रंग बिरंगी पगड़िया व मोठ़डे देखते ही बनते थे। ऐसे ही नौजवानों के सुगठित शरीर पर नाना प्रकार के उपरणे लहरा रहे थे उनमें भी कुछ लोगों ने अपने पैरों मे सोने के लंगर पहिन रखे थे। वृद्ध मनुष्यों की रजतधवल दाढ़ियां अत्यन्त ही गौरवान्वित हो रही थी। उस महोत्सव में सम्मिलित होने वाले अनेक रावराणा शोभायात्रा में यथावत् अपने-अपने स्थान पर खड़े थे जैसे ही प्रभु के आगमन का बिगुल बजा, सब लोग सतर्क हो गये और अपने हाथों में पुष्पगुच्छो को ले लिया। महाराणा भीमसिंह पहले से ही श्रीनाथप्रभु के स्वागतार्थ नगर के प्रमुख द्वार पर खडे़ थे। शोभायात्रा के अग्रभाग में अश्व पर नगाढा बज रहा था। उसके पीछे हाथी पर उदयपुर महाराणा का निशान था और उसके पीछे कई सुसज्जित मदमाते हाथी अपनी अल्हड़ चाल से चल रहे थे। इनके पीछे सोने व चाँदी के आभूषणों से युक्त इठलाते घोड़े और इनके बाद महाराणा के अनेक शस्त्रधारी अद्वितीय योद्वा एक-एक कदम पंक्तिबद्ध बढा रहे थें। उदयपुर का प्रसिद्ध बाजा इस समय अपनी मधुर आवाज से सभी दर्शकों को आत्मविभोर किए हुए था। इसके पश्चात् गोपाल निशान को लिये ब्रजवासी अश्व पर सवार था। इनके पीछे गोस्वामी जी की सेना शनेःशने अपने कदम बढ़ा रही थी। इसके पश्चात् अरबी ताशे बजाने वालों का समूह बाजे बजाता चल रहा था। तदनन्तर छडी़दार ,समाधानी तथा मंदिर के अनेक कर्मचारी छडी़ लिए हुए आगे बढ रहे थें। इनके पीछे गोस्वामी बालक दिखलाई पड़ते थे। महाराज श्री गिरधरजी के मुख पर उस समय एक दिव्य चमक थी। गोस्वामी बालकों के साथ ही सच्चिदानन्द घन प्रभु श्रीनाथजी का अनुपम रथ चल रहा था और कईं सेवक उस पर चँवर आदि डुला रहे थे। जैसे ही श्रीनाथजी का रथ महाराणा को दिखलाई पड़ा वे नतमस्तक हो गये। वे बार-बार प्रभु को वन्दन करने लगे। जय जयकार की तुमूल हर्ष की ध्वनी से सारा नगर निनादित हो उठा। महाराणा सही समय पर रथ के साथ सम्मिलित हो गये और स्वयं श्रीजी पर चँवर डुलाने लगे। श्रीजी के रथ के पीछे श्रीनवनीत प्रियजी और पीछे श्री विट्ठलेशरायजी के रथ चल रहे थे। इनके पीछे नाथद्वारा नगर की असंखय महिलाएँ चल रही थी। उनके धूल घुसरित मुखडे पर पसीने की बूंदे दिखलाई पड रही थी। उनमें से कई ने मस्तक पर टोकरे ले रखे थे। अनेको की गोदी में कई नन्हे-नन्हे बच्चे किल्लोल कर रहे थे। महिलाओं के बाद नाथद्वारा के कई संभ्रान्त नागरिक चल रहे थे। इनके बाद अनेक बैलगाडियाँ थी जिन पर सामान लदा हुआ था। शोभायात्रा में सबसे पीछे महाराज श्री के नगर रक्षक सांडनी सवारों की कतारे चौकन्नी होकर धीरे-धीरे आगे बढ रही थी। इस प्रकार ”श्री गिरिराज धरण की जय” उद्गोष के साथ प्रभु का रथ अनवरत अग्रसर होता जा रहा था। सड़के, छते तथा दुकाने दर्शनार्थियों से खचाखच भरी थी। लोग जय जयकार करते हुए पुष्प् वर्षा कर रहे थे। ऐसे परमानन्दमय अवसर पर कुछ भक्त आँखों में प्रेमाश्रु बहाकर प्रभु का स्तवन करने लगे और कुछ आनन्दोन्मत होकर नाचने लग गये। जैसे ही श्री गोवर्धन धरण प्रभु श्रीनाथजी का रथ राजप्रसाद के समीप पहुँचा, मेवाड की महारानियों ने प्रभु श्रीनाथजी का स्वागत किया। उस समय वे अद्भुत रूप लावण्य से सम्पन्न और बहुमूल्य वस्त्रालंकारों से सुसज्जित थी। राजमहिषी ने मुट्ठि भर-भरकर प्रभु के रथ पर मुद्राएं उछाली और रजत कनक पुष्पों की वर्षा की। इस प्रकार मन्थर गति से यह शोभायात्रा सात घंटो तक चलकर वर्तमान श्रीनाथजी मंदिर तक पहुँची । बडी़ धूमधाम के साथ रथ की आरती उतारी गई और रथ में ही श्रीकृष्णस्वरूप प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन कराये गये। जिस समय प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन खुले उस समय भक्तों में अपार अहाद देखते ही बनता था। प्रभु श्रीनाथजी के उदयपुर पहुँचने पर एक लघु मंदिर में प्रभु बिराजे। उसके बाद वहां भी नाथद्वारा के समान ही मंदिर का निर्माण कार्य कराया गया। श्री नवनीत प्रिय प्रभु श्रीनाथ प्रभु के साथ थे। श्री विट्ठलेशराय अपने अलग मंदिर में प्रतिष्ठापित हुए। प्रभु के साथ यहां फाल्गुन चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रप्रद, आद्गिवन एवं कार्तिक के दीपावली व अन्नकूट आदि के उत्सव सम्पन्न किये। परन्तु सिन्धियां की सेना धीरे-धीरे बढते हुए यहां भी आ पहुँची। महाराणा भीमसिंह ने उसे पुनः लौट जाने तथा उदयपुर को कोई क्षति नहीं पहुँचाने के लिये कर रूप में अपनी राजरानियों के मूल्यवान हीरे-जवाहरात युक्त आभूषण भी दे दिये। ऊपर से तीन लाख रूपया और दिया। फिर भी उसकी अर्थ पिपासा शान्त नहीं हुई और उसने मेवाड की प्रजा को लूटा। महाराणा के शूखीर योद्वा उनसे भीड़ गये। देखते ही देखते युद्ध के प्रलयंकारी बादल दिखलाई पड़े । ऐसी विषमावस्था में प्रभु के निवास स्थान के लिये एकमात्र घसियार ही उपयुक्त स्थान दिखलाई पड़ा । उदयपुर में प्रभु श्रीनाथजी दस माह और नौ दिन बिराजे। तत्पश्चात् घसियार में सुदृढ़ दुर्गनुमा मंदिर बन जाने के बाद प्रभु श्रीनाथजी उस ओर रवाना हो गये। घसियार प्रस्थान :- घसियार सुन्दर पर्वतीय उपत्यका में हरितिमा लिये हुए एक भयानक स्थान था। यकायक यहां किसी का पहुँचना सहज नही था तो दुभर अवश्य था। गो.ति. श्री गिरधरजी महाराज ने पन्द्रह लाख रूपया लगाकर जो प्रभु श्रीनाथजी का मंदिर बनवाया अब तो वह पूर्णरूपेण निर्मित हो चुका था। अतः प्रभु को वहीं पधराना उचित समझा गया। नन्दनन्दन प्रभु श्रीनाथजी अब घसियार पधारे और अपने दुर्गाकार मंदिर में बिराजमान हुए। देखते ही देखते घसियार नाथद्वारा हो गया। मंदिर के चारो ओर गली मोहल्ले तथा चौराहे बनने लगे। नित नये आनन्द व मनोरथों की वहां झडी लगने लग गई। जंगल में मंगल के नगाडे़ बज उठे। घसियार से पुनः नाथद्वारा आगमन :- वहां घसियार का जलवायु सभी को अनुकूल नहीं हुआ। वहा का पहाड़ी पानी प्रभु श्रीनाथजी की सेवा योग्य नही था। यहाँ तक कि विपरित वातावरण से आचार्य ति. श्री गिरधरजी महाराज के तीन पुत्र कुछ ही वर्षो में परलोक सिधार गये। अतः महाराजश्री ने अपने चतुर्थ पुत्र श्री दाऊजी को प्रभु श्रीनाथजी के श्रीचरणों में डाल दिया। करूणावरूणालय प्रभु श्रीनाथजी ने तुरन्त ही अपना दायाँ श्रीहस्त दाऊजी के ऊपर रख दिया और अभय वर दिया। इसके साथ ही पुनः नाथद्वारा कूच करने की आज्ञा प्रदान की। इस प्रकार एक वर्ष उदयपुर और पांच वर्ष घसियार वास करने के पश्चात् वि.सं. १९६४ में प्रभु श्रीनाथजी दलबल सहित अनेक भक्तों को साथ लेकर युद्ध भूमि हल्दीघाटी के अरण्य मार्ग को पारकर खमनोर होते हुए नाथद्वारा आ पहुँचे। लेकिन श्री विट्ठलनाथजी प्रभु श्रीनाथजी संग नही पधारे। वे उदयपुर से सीधे वि.सं. १८५८ में कोटा पधार गये। जब गो.ति. श्री दाऊजी महाराज ने वि.सं. १८७८ में प्रभु श्रीनाथजी में द्वितीय सप्तस्वरूपोत्सव किया तब कोटा से पुनः श्री विट्ठलेशरायजी नाथद्वारा आये और अपने मंदिर में बिराजे तभी से अभी तक आप इस नगर को पावन किये हुए है।प्रभु श्रीनाथजी पुनः छः वर्षो बाद नाथद्वारा पधारे उस समय तक इस नगर की ऐसी दुर्दशा हो गई कि लोग अपने पुराने मकानों तक को नहीं पहचान सके। तिलकायत महाराज का भवन मात्र भग्नावशेष रह गया। परन्तु ऐसे समय में प्रभु श्रीनाथजी का जीर्ण शीर्ण मंदिर सभी भक्तों के लिए परम वंदनीय था। जिस दिन से प्रभु श्रीनाथजी ने पुनः पदार्पण किया। उसी दिन से अनवरत इस वसुधा पर सुधा वर्षण होने लगा है। महाराणा भीमसिंह ने जब देखा कि प्रभु श्रीनाथजी आनन्दपूर्वक नाथद्वारा पधार गये है और पुनः उसी मंदिर में बिराजे है, उनका हृदय प्रसन्नता के मारे बाँसो उछल पड़ा। क्योकि प्रभु के घसियार वास करने से महाराणा काफी चिन्तित हो गये थे। अतः शुभवेला देख महाराणा भीमसिंह नाथद्वारा आये और प्रभु श्रीनाथजी के दर्शन कर गद् गद हो गये। इसके साथ ही श्रीजी में अनेक मनोरथ करवाकर सालोर, घसियार, व्याल, चेनपुरिया, चरवोटिया, भोजपुरिया, टांटोल, बाँसोल, होली, जीरण, देपुर छोटा, सिसोदिया, ब्राह्मणों का खेडा़ तथा माँडलगढ का मंदिर आदि गाँव प्रभु को भेंट कर प्रभु श्री गोवर्धनधरण श्रीनाथजी के प्रति अपनी अटूट श्रद्धाभक्ति का परिचय दिया।


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