Chartered Accountant,Social Activist,Political Analysist-AAP,Spritual Thinker,Founder of Life Management, From India, Since 1987.
Friday 28 October 2022
★"अध्यात्म रामायण" - पहला दिन★ सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान श्री शंकर ने माता पार्वती जी को सुनाया था। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा "अध्यात्म रामायण" है ! "अध्यात्म रामायण" वेदांत दर्शन पर आधारित भगवान श्रीराम की भक्ति का प्रतिपादन करने वाला रामचरितविषयक 'अध्यात्म-रामचरित' है। इसमें 7 कांड एवं 65 अध्याय हैं, जिन्हें प्राय: महर्षि व्यास द्वारा रचित और 'ब्रह्मांडपुराण' के 'उत्तरखंड' का एक अंश है ! श्रीराम के भक्तों के लिए अध्यात्म रामायण को अत्यंत महत्वपूर्ण कहा गया है। इसमें राम, विष्णु के अवतार होने के साथ ही, "परब्रह्म" या "निर्गुण ब्रह्मा" भी माने गए और सीता की "योगमाया" कहा गया है। रामायण में सात काण्ड हैं - बालकाण्ड, अयोध्यकाण्ड, अरण्यकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड। राम कथा का दर्शन "अध्यात्म, और विज्ञान" !!!!!! "अयोध्या" रामकथा का प्रारम्भ और समापन स्थल है। (1)अयोध्या का अर्थ : - अयोध्या (अ + युद्ध), जहाँ युद्ध और द्वन्द न हो, अर्थात शांति हो। अयोध्या का दूसरा नाम अवध है। (अ + वध) अर्थात जहाँ अपराध न हों, पाप न हों, जहाँ कठोर सजा की, वध जैसी सजा की आवश्यकता ही न हो। ऎसी उच्च कोटि की शांति - व्यवस्था कायम हो जहाँ, वह है - अवध. दार्शनिक दृष्टि से जहाँ चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाय, वह है - अयोध्या और वह है - अवध। यह एक साधक की अपनी मनः स्थिति है। साधना का उच्च सोपान है यह ! यही योग की परिभाषा भी है - "योग: चिति वृत्ति निरोधः" - (योग सूत्र-१.१) (2)अयोध्या का राजा "दशरथ" का अर्थ :- जो शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दसो इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रखे ! ज्ञातव्य है कि कठोपनिषद में "आत्मानं रथिं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं सारथि विद्धि मनः प्रग्रह मेवच ।। ...." (कठ -३.३-५) से इसी आशय को स्पष्ट किया गया है. और गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्ही इन्द्रियों को वश में करके 'दशरथ; बनने का उपदेश देते हैं - (गीता ३.४१) "दशरथ" - योग मार्ग का पथिक : - योगी के लिए निर्देश है -"योग: कर्मः कौशलम". इसके लिए अनिवार्य शर्त है "समत्वं योग उच्यते", समत्व दृष्टि की, समत्व के आचार-विचार की समदर्शी और समत्व की स्थिति में ही शान्ति-व्यवस्था कायम है ! आतंरिक और वाह्य सुख की, प्रसन्नता की अवस्था है यह ! (3)दशरथ की 3 रानियाँ का अर्थ :- त्रिगुण (सत + रज + तम) यही सत - कौशल्या, रज - सुमित्रा, और तम - कैकेयी हैं ! (4)योगी दशरथ के 4 पुत्रों (पुरुषार्थ) का अर्थ :- एक योगी ही अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति कर सकता है । दशरथ रूपी साधक ने भी इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त किया था; ( धर्म - राम, अर्थ - लक्ष्मण, काम - भरत , मोक्ष - शत्रुघ्न) (5)राम हैं - धर्म : - राम धर्म का प्रतीक हैं. धर्म को परिभाषित किया गया है - "धारयति असौ सह धर्मः". अर्थात हमारे अस्तित्व को धारण करे वह धर्म है । जिससे हमारा अस्तित्व है और जिसके अभाव में हम अपनी पहचान खो देते हैं । वह नियामक तत्व धर्म है । इस परिभाषा के अनुसार हम मानव हैं । इंसान हैं, अतः हमारा धर्म है - 'मानवता', 'इंसानियत' । यह मानव धर्म हमारी सोच, विचार, मन और आचरण से निःसृत होता है; इसलिए इसका नाम है - 'राम'. "रम्यते इति राम:" अर्थात जो हमारे शारीर में, अंग-प्रत्यंग में रम रहा है, वही है - 'राम '; और वही है - 'धर्म' । इस राम के कई रूप हैं, सबकी अपनी अपनी अनुभूतियाँ हैं - "एक राम दशरथ का बेटा ! एक राम है घट - घट लेटा ! एक राम का जगत पसारा ! एक राम है सबसे न्यारा ! (6)लक्ष्मण हैं - अर्थ : - जिसका लक्ष्य हो 'राम', जिसका एक मात्र ध्येय हो 'राम', वही है - 'लक्ष्मण' ! अर्थ का धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाना ही अर्थ की सार्थकता, उसकी उपयोगिता और उसका गौरव है ! अर्थ और धर्म का युग्म ही कल्याणकारी, लोकमंगलकारी है ! अर्थ का साथ होने पर ही धर्म अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है ! लेकिन यह अर्थ उपयोगी तब है जब वह भोग, लिप्सा और विलासिता से दूरी बनाये रहे ! भोग तो रहेगा, लेकिन त्यागमय भोग ! 'तेन त्यक्तेन भुन्जीथा' के रूप में. राम रूपी लक्ष्य को छोडकर जो अन्यत्र न भटके; वह है - "लक्ष्मण" अर्थात "अर्थ" ! (7)भरत है - काम : - भरत का अर्थ है - भा + रत (भा = ज्ञान, रत = लीन), अर्थात जो सतत ज्ञान में लीन हो ; वह है भरत ! जिसकी सोच, जिसके विचार, जिसके कार्य, जिसकी जीवनशैली 'काम' को भी महनीय, नमनीय और वन्दनीय बना दे ! वह है - "भरत" ! कम को हेय दृष्टि से देखने वालों की जो धारणा बदल दे वह है - "भरत" ! काम की सर्वोच्चता का जो दर्शन-दिग्दर्शन करा दे, वह है- "भरत" ! (8)शत्रुघ्न हैं - मोक्ष : - कामना तो सर्वव्यापी है ! कामना की पूर्ति न हो तो अशांति और क्रोध की उत्पत्ति होती है. परन्तु जिसकी कोई कामना ही नहीं ! वह है - शत्रुघ्न ! लक्ष्मण की कामना हैं - "राम", भरत की कामना हैं - "राम" ! परन्तु जिसे राम की भी कामना नहीं है, जो वीतरागी है, जिसका कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं, कोई कोई शत्रु नहीं, वही तो है - "शत्रुघ्न" ! जिसने अपनी समस्त मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, वही तो है - "शत्रुघ्न" ! यही मोक्ष की स्थिति है, जीवन मुक्त की स्थिति है, कैवल्य और निर्वाण की परिकल्पना इसी भाव से ओत-प्रोत है ! यही गीता की शब्दावली में 'स्थितिप्रज्ञं है. बका और फना में इसी प्रकार के वीतरागी जीवन की परिकल्पना है ! जीवनमुक्त जगत का कार्य तो करता है, क्योकि कार्य से मुक्ति किसी की नहीं हो सकती. लेकिन अब उसका कर्म निष्काम कर्म है, उसका कार्य कर्मयोग है. यह योग की पूर्णता है ! यह कर्म - अकर्म - विकर्म......, इन सभी कोटियों से बहुत ऊपर की अवस्था है ! (9)पुरुषार्थी वृत्ति का अर्थ :- पुरुषार्थी वृत्ति की परिणति "दानवृत्ति" में है। लोककल्याणार्थ धर्म और अर्थ (राम और लक्ष्मण) को सुपात्र, "जगत के मित्र" विश्वामित्र के हाथों सौप देना ही पुरुषार्थ की उपादेयता और उपयोगिता है ! प्रत्येक पुरुषार्थी का यह सामाजिक दायित्व बनता है कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, विकास और उत्थान में बाधक आसुरी - प्रतिगामी प्रवृत्तियों (ताड़का, सुबाहु, मारीच) से सृजनशील शोध संस्थानों, यज्ञशालाओं, प्रयोगशालाओं की रक्षा करे ! आज भी समर्थवानों से, संवेदनशीलों से यही अपेक्षा है ! सीए. दिनेश सनाढ्य - एक हिंदुस्तानी #(222) #29/10/22 #dineshapna
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment