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Sunday 19 April 2020
क्या है धर्मयुद्ध? विश्व इतिहास में महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में जो युद्ध लड़ा गया था वह किसी धर्म, जाति, मजहब या संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि सत्य और न्याय के लिए युद्ध किया गया था। हालांकि कुछ लोग मान सकते हैं कि यह युद्ध भूमि विवाद पर था। हालांकि इसके पीछे के सत्य को जानने के लिए आपको महाभारत का गहन अध्ययन करना होगा। आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी। तभी से कलियुग का आरम्भ माना जाता है। दुर्योधन इत्यादि को समझाने का कई बार प्रयत्न किया गया था। एक बार महाराज द्रुपद के पुरोहित उसे समझाने गए। दूसरी बार देश के प्रमुख ऋषियों और भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र और गांधारी ने भी समझाने का प्रयत्न किया और तीसरी बार भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हस्तिनापुर गए थे। इस सबके उपरांत जब सत्य, न्याय और धर्म के पथ को उसने ठुकरा दिया तब फिर दुर्योधन और उसके सहयोगियों को शरीर से वंचित करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं बचा। कहा जाता है कि सत्य और न्याय की रक्षा के लिए युद्ध न करने वाला या युद्ध से डरने वाला पापियों का सहयोगी कहलाता है। महाभारत में जिस धर्मयुद्ध की बात कही गई है वह किसी सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ नहीं बल्कि अधर्म के खिलाफ युद्ध की बात कही गई है। अधर्म अर्थात सत्य, अहिंसा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय के विरुद्ध जो खड़ा है उसके खिलाफ युद्ध ही विकल्प है। विभीषण के अलावा अन्य ऋषियों ने रावण को समझाया था कि पराई स्त्री को उसकी सहमति के बिना अपने घर में रख छोड़ना अधर्म है, तुम तो विद्वान हो, धर्म को अच्छी तरह जानते हो, लेकिन रावण नहीं माना। समूचे कुल के साथ रावण का नाश हुआ। पहले न्यायालय नहीं होते थे तो न्याय का पक्ष लेना वाला ही धर्मसम्मत आचरण वाला माना जाता था। यदि आपके साथ अन्याय हो रहा है और कहीं पर भी न्याय नहीं मिल रहा है तो एकमात्र विकल्प युद्ध ही बच जाता है। उस समूची व्यवस्था के खिलाफ जो न्याय देने में देरी कर रही है या कि जो न्याय नहीं कर रही है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो देवताओं को पूजते हैं वे देवताओं को प्राप्त होते हैं और जो राक्षसों को पूजते हैं वे राक्षसों को प्राप्त होते हैं, लेकिन वही श्रेष्ठ मनुष्य है जो मुझ ब्रह्म को छोड़कर अन्य किसी की शरण में नहीं है।
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